
लेखिका “भावना जयसवाल” की कलम से…….जब से लोगों को देख कपड़ा संभालना सीखी तब से सुनते आ रही हूं “स्त्री” बनना आसान नहीं। और ये “फेमिनिज्म” शब्द का प्रोमोशन जब से बढ़ने लगा तब से हाय तौबा , स्त्रियों को “मल्टी टैलेंटेड” की उपाधि भी भेंट में दे दी गई। पर इस नए ज़माने और वुमन एंपावरमेंट के दौर में “मर्द” की परिभाषा थोड़ी डगमगा सी गई या यूं कहूं तो “मर्द” ही गुम हो गए। जब एक फेमिनिस्ट कुछ कहती और लिखती है तो “ट्रॉल” करने वाले “पुरुष” , अपने हक के लिए लड़े तो उसे “चरित्र” की परिभाषा दिखाते “पुरुष” , जब घर पर रह जाए तो पड़ोसी की बीवी या बेटी से “मापने” वाले पुरुष , जब जादा पढ़ ले तो “शादी” का डर देते पुरुष और कुछ गिने चुने “मर्द” जो इनसे भिन्न स्त्री को भी इंसान मानते हैं।उस दौर में जहां एक “मां” अपने पति का और एक “बेटी” अपने पिता के तेज आवाज़ या थप्पड़ वाले गुस्से को चुप से सह लेती थी , आज बढ़ते “सेक्सुअल हरासमेंट” को भी सह रही है। सौ में से तीन चार लड़ भी रहीं हैं पर एक शोर के बाद ख़ामोश हो जाती हैं चलो थोड़ी हिम्मत तो आई इनमें की अब कह लेती हैं , लड़ लेती हैं , पढ़ लेती हैं , नौकरी कर लेती हैं , और कई जगहों में स्वतंत्र भी हैं। हां पर “रेप” का डर उसके अंदर अब कुछ जादा है। और इसका कारण ये बिल्कुल भी नहीं की वो बढ़ने लगी हैं ।परन्तु कारण यह है कि “मर्दों” की संख्या कम हो गई है , और कुछ तक “मर्द” की परिभाषा भी गलत तरीके से पहुंच रही । एक “राक्षस” रूपी इंसान आज कल मार्केट में दिखने लगा है जो केवल अंडरवियर के अन्दर की सीमाओं को तोड़ना चाहता है । उसे समझ नहीं इंसानियत को , और कहां से होगी आपने जो पूरा ध्यान एक स्त्री के साज सज्जा में लगा दिया। जब आप अपनी बेटी को आगे बढ़ना सिखाते हो तब वहां खड़ा उसके भाई को सिखाना क्यों भूल जाते हो कि उसे कैसे बढ़ना है यह कहकर “लड़का है , कर लेगा” । कर तो लेगा और फिर हार्दिक पांडेय जैसे नेशनल टेलीविजन में भी कह देगा “आज मैं कर के आया”। फिर भी उसकी पीठ ठोकोगे ना आप? जब एक स्त्री डरती है , सहती है तो वो इसलिए नहीं क्योंकि वो कमज़ोर है , अपितु इसलिए क्योंकि उसे डर है सामने खड़ा एक “पुरुष” , “मर्द” है या नहीं। जब बोला जाता है “ब्रा की स्ट्रिप्स” को छुपाओ तो जिससे छुपाने को कहा उसे कौन बतायेगा की वो महज़ एक कपड़ा है जिस्म धाकने के लिए ना की टुकड़ा “गलत नियत” या “गलत चरित्र” की निशानी।”पैडमैन” देखने तो बड़े जोरों शोरों से गए थे परिवार के साथ। बॉयफ्रेंड्स भी गए होंगे गर्लफ्रेंड के साथ। एक कॉलेज और ऑफिस का ग्रुप भी तो गया ही होगा । पर स्टोर या मेडिकल पर जब एक “स्त्री” पैड लेने जाती है या बदलते पर्यावरण से जब पहली कक्षा में ही महीना आने लगता है , तो उसे छुपाना क्यों पड़ता है। मतलब “अनकंफर्टेबल” क्यों लगता ? क्योंकि आप ने तो पैड और पीरियड्स को केवल एक ऐसी चीज़ मानी जिसका सम्बन्ध शरीर के गुप्त जगह से है। और किसी स्त्री के वस्त्र में “लाल” रंग दिख जाए , अरे वो अगर कह भी से “पेट” में दर्द है तो यही ऐसे शरमाने लगते है जैसे बड़े शरीफ पुरुष हैं , और अपनी बेवकूफ़ होने का परिचय दे देते। “मर्द” बनना है ना , अरे “आम” इंसान ही सही, तो लो मै बताती हूं ये महज एक बायोलॉजिकल प्रोसेस है रेप हो गया उस शहर में कभी दो महीने तो किसी दिन 60 साल की स्त्री का , फिर भी चुप्पी साधे शांत हो क्योंकि मेरी बेटी तो घर में है और मेरे बेटे ने तो अब तक कुछ किया ही नहीं। माते और पिताश्री ज़रा खयाल अपने पुत्र के उज्ज्वल भविष्य का भी रख लें। उसे “मर्द” बनाए ताकि उसे किसी और के “चूड़ी” का भी कद्र हो…..हां तो मैं यह कह रही थी कि “मर्द” बनना कठीन है इस “मॉडर्न” युग में…..वैसा मर्द जिसके लहजों में
ईमानदारी हो,
और बातों में तमीज़,
माने जो “स्त्री” को इंसान,
भूले ना कभी मां के कोख का एहसान…